VMOU SO-05 Paper BA 3rd Year ; vmou exam paper 2024
नमस्कार दोस्तों इस पोस्ट में VMOU BA Final Year के लिए समाजशास्त्र ( SO-05 , Social Thinkers) का पेपर उत्तर सहित दे रखा हैं जो जो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जो परीक्षा में आएंगे उन सभी को शामिल किया गया है आगे इसमे पेपर के खंड वाइज़ प्रश्न दे रखे हैं जिस भी प्रश्नों का उत्तर देखना हैं उस पर Click करे –
Section-A
प्रश्न-1. द्वन्द्ववाद क्या है ?
उत्तर:- द्वंद्ववाद एक ऐसा दर्शनीय सिद्धांत है जो परिवर्तन और विकास को समझने के लिए एक ढांचा प्रदान करता है। यह मानता है कि दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील है और यह परिवर्तन विरोधाभासों के संघर्ष और समाधान से होता है।
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प्रश्न-2. सामाजिक मूल्य को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर:- सामाजिक मूल्य किसी समाज के सदस्यों द्वारा साझा किए गए विश्वास, मान्यताएं और आदर्श होते हैं जो उनके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। ये मूल्य समय के साथ विकसित होते हैं और एक समाज की संस्कृति, इतिहास और सामाजिक संरचना को दर्शाते हैं। ये मूल्य व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
प्रश्न-3. वर्ग-संघर्ष क्या है ?
उत्तर:- वर्ग संघर्ष, जिसे वर्ग युद्ध के नाम से भी जाना जाता है, तनाव की एक स्थिति है जो किसी भी समाज में विभिन्न समूहों के लोगों की उपस्थिति के कारण मौजूद होती है जिनके हित अलग-अलग होते हैं। समाज में आर्थिक स्थितियों में अंतर के कारण कई वर्ग मौजूद होते हैं। समाजशास्त्र में वर्ग और वर्ग संघर्ष की परिभाषा कार्ल मार्क्स ने दी थी।
प्रश्न-4. भारत के किन्हीं दो समाजशास्त्रियों के नाम लिखिए ?
उत्तर:- राधाकमल मुकर्जी (1889–1968), धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी (1894-1962) और गोविंद सदाशिव घुर्ये ( 1893 – 1984
प्रश्न-5. सामाजिक क्रिया को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर:- किसी व्यक्ति या समूह की वह अर्थपूर्ण क्रिया है जो वह किसी अन्य व्यक्ति या समूह की किसी क्रिया को ध्यान में रखकर करता है।
प्रश्न-6. जाति क्या है ?
उत्तर:- जाति भारत में एक जटिल सामाजिक व्यवस्था है जो सदियों से चली आ रही है। यह जन्म के आधार पर लोगों को विभिन्न समूहों में बांटती है। ये समूह आमतौर पर पारंपरिक व्यवसायों, सामाजिक स्थिति और सामाजिक रीति-रिवाजों से जुड़े होते हैं।
प्रश्न-7. श्रम विभाजन क्या है ?
उत्तर:-श्रम विभाजन एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें किसी बड़े काम को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया जाता है और हर हिस्से को करने के लिए अलग-अलग व्यक्ति या समूह जिम्मेदार होते हैं। यह एक ऐसा तरीका है जिससे काम को अधिक कुशलता से किया जा सकता है और उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।
प्रश्न-8. पूँजीवाद से आपका क्या आशय है ?
उत्तर:- पूंजीवाद एक आर्थिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधन, जैसे कि कारखाने, भूमि और पूंजी, निजी स्वामित्व में होते हैं। इसका मतलब है कि इन साधनों पर व्यक्ति या निजी कंपनियां मालिक होती हैं, और वे इनका उपयोग लाभ कमाने के लिए करती हैं।
प्रश्न-9. कार्ल मार्क्स द्वारा रचित किन्हीं दो पुस्तकों के नाम लिखिए।
उत्तर:- “द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” और चार-खंड “दास कपिटल”
प्रश्न-10.सामाजिक तथ्य को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:- सामाजिक तथ्यों का स्वरूप सार्वभौमिक होता है, अर्थात् यह सभी व्यक्ति के चेतन अवस्था को समान रूप से प्रभावित करता है। इस रूप में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्य, सामाज के सभी व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं, इसलिए यह मनुष्य के सामूहिक जीवन में समान रूप से अपना प्रभाव बनाकर रहता है।
प्रश्न-11. सामाजिक क्रिया से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- सामाजिक क्रिया वह संगठित सामूहिक प्रयास है जिसके द्वारा लोगों की सामाजिक समस्याएं हल करने या बुनियादी सामाजिक और आर्थिक दशाओं या परंपराओं को प्रभावित करते हुए वांछित सामाजिक उद्धेश्यों को पूरा करने की कोशिश की जाती है ।
प्रश्न-12. नौकरशाही क्या है ? समझाइए।
उत्तर:- नौकरशाही एक संगठन है जो नियमों, प्रक्रियाओं और पदानुक्रम पर आधारित होता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें काम को विभाजित करके और विशेषज्ञों को नियुक्त करके कार्य को कुशलतापूर्वक करने का प्रयास किया जाता है। सरकारी विभाग, बड़े कॉर्पोरेशन, और कई अन्य संगठन नौकरशाही मॉडल पर काम करते हैं। नौकरशाही का उद्देश्य संगठन को अधिक कुशल और प्रभावी बनाना होता है।
सरल शब्दों में: नौकरशाही एक ऐसी व्यवस्था है जहां कामकाज निश्चित नियमों के अनुसार होता है और हर व्यक्ति को उसकी जिम्मेदारी पहले से बता दी जाती है।
प्रश्न-13.सामाजिक पारिस्थितिकी को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:- सामाजिक पारिस्थितिकी वह अध्ययन है जो समाज और उसके पर्यावरण के बीच के संबंधों को समझता है। यह देखता है कि कैसे मानव समाज प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करता है, पर्यावरण को कैसे प्रभावित करता है, और पर्यावरण बदले में समाज को कैसे प्रभावित करता है। इसमें सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारकों के बीच के अंतर्संबंधों का विश्लेषण शामिल है।
सरल शब्दों में: सामाजिक पारिस्थितिकी यह समझने का प्रयास करती है कि समाज और प्रकृति एक-दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं।
प्रश्न-14.जी.एस. घुरिये द्वारा दी गई जाति की कोई दो विशेषताएँ लिखिए
उत्तर:- घुर्ये के अनुसार जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को खण्डों में विभाजित किया है। प्रत्येक खण्ड के सदस्यों के पद, स्थिति और कार्य पूर्व निश्चित हैं। समाज अनेक जाति-खण्डों में और जातियाँ विभिन्न उपखण्डों में बँटी होती हैं। जैसे-भारत में वर्णव्यवस्था।
प्रश्न-15. दास केपिटल पुस्तक के लेखक कौन है ?
उत्तर:- Karl Marx (कार्ल मार्क्स)
प्रश्न-16. टोटम से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- ‘टोटम’ शब्द ओजिब्वे (Ojibwe) नामक मूल अमेरिकी आदिवासी क़बीले की भाषा के ‘ओतोतेमन’ (ototeman) से लिया गया है, जिसका मतलब ‘अपना भाई/बहन रिश्तेदार’ है। इसका मूल शब्द ‘ओते’ (ote) है जिसका अर्थ एक ही माँ के जन्में भाई-बहन हैं जिनमें ख़ून का रिश्ता है और जो एक-दूसरे से विवाह नहीं कर सकते।
प्रश्न-17. सामाजिक क्रिया के कोई दो प्रकार बताइए।
उत्तर:- – एक विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा की गई क्रिया दूसरी – सर्वमान्य सामाजिक क्रिया ।
प्रश्न-18. ‘आदर्श प्रारूप’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- ‘आदर्श प्ररूप’ एक मॉडल की तरह, दिमागी तौर पर बनाई गई ऐसी विधि है जिसके आधार पर वास्तविक स्थिति अथवा घटना को परखा जा सकता है और उसका क्रमबद्ध तरीके से चित्रण किया जा सकता है । वेबर ने सामाजिक यथार्थ को समझने और परखने के लिए आदर्श प्ररूप को विचार पद्धति के साधन के रूप में प्रयुक्त किया है।
प्रश्न-19. सामाजिक मूल्यों को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:- सामाजिक मूल्य सामाजिक संबंधों को संतुलित करने तथा सामाजिक व्यवहारों में एकरुपता उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होते हैं। मूल्य समाज के सदस्यों की आन्तरिक भावनाओं पर आधारित होते हैं। सामाजिक मूल्य जीवन को वह मनोवैज्ञानिक आधार पर करते हैं । जो कि समाज व्यवस्था व संगठन के लिये आवश्यक होता है।
प्रश्न-20.श्रम विभाजन के प्रकार्य क्या है ?
उत्तर:- question-7
Section-B
प्रश्न-1. वर्ग एवं वर्ग-चेतना को समझाइए ?
उत्तर:- वर्ग और वर्ग-चेतना दो महत्वपूर्ण सामाजिक अवधारणाएं हैं जो किसी समाज के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को समझने में मदद करती हैं।
वर्ग क्या है?
एक वर्ग समाज का एक ऐसा समूह है जिसमें लोग अपने आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, जीवन शैली और हितों के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। ये समूह आमतौर पर उत्पादन के साधनों के स्वामित्व या उनके अभाव के आधार पर विभाजित होते हैं।
उदाहरण के लिए:
- पूंजीपति वर्ग: वे लोग जो उत्पादन के साधनों (जैसे कारखाने, भूमि, पूंजी) के मालिक होते हैं।
- मजदूर वर्ग: वे लोग जो अपनी जीविका के लिए दूसरों के लिए काम करते हैं।
- मध्यम वर्ग: वे लोग जो आर्थिक रूप से मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच आते हैं।
वर्ग-चेतना क्या है?
वर्ग-चेतना एक वर्ग के सदस्यों की अपनी सामाजिक स्थिति और अन्य वर्गों के साथ अपने संबंधों के बारे में जागरूकता है। यह एक ऐसी समझ है जिसमें एक व्यक्ति यह महसूस करता है कि वह किस वर्ग से संबंधित है और उस वर्ग के सामने क्या चुनौतियाँ हैं।
उदाहरण के लिए:
- एक मजदूर वर्ग का व्यक्ति अपनी कम मजदूरी, खराब काम करने की स्थितियों और सामाजिक असमानता के बारे में जागरूक हो सकता है।
- एक पूंजीपति वर्ग का व्यक्ति अपनी आर्थिक शक्ति और सामाजिक प्रभाव के बारे में जागरूक हो सकता है।
वर्ग और वर्ग-चेतना का महत्व
- सामाजिक परिवर्तन: वर्ग-चेतना सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक है। जब एक वर्ग अपने हितों को समझता है तो वह सामाजिक परिवर्तन के लिए संगठित हो सकता है।
- समाज का विश्लेषण: वर्ग और वर्ग-चेतना का अध्ययन हमें समाज के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को समझने में मदद करता है।
- सामाजिक नीतियां: सरकारें वर्ग और वर्ग-चेतना को ध्यान में रखकर सामाजिक नीतियां बना सकती हैं।
वर्ग और वर्ग-चेतना के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें
- वर्ग-चेतना सामाजिक और राजनीतिक कारकों से प्रभावित होती है: शिक्षा, मीडिया और राजनीतिक दल वर्ग-चेतना को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- वर्ग एक गतिशील अवधारणा है: वर्गों की परिभाषा और संरचना समय के साथ बदल सकती है।
- वर्ग-चेतना हमेशा स्पष्ट नहीं होती: सभी लोग अपनी वर्ग-चेतना के बारे में जागरूक नहीं होते हैं।
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प्रश्न-2. सामाजिक तथ्य क्या है? सामाजिक तथ्य की विशेषताएँ बताइए ?
उत्तर:- सामाजिक तथ्य एक ऐसी अवधारणा है जिसे समाजशास्त्र के जनक ऑगस्ट कॉम्टे ने पेश किया था। उन्होंने समाज को एक जीवित जीव की तरह देखा और कहा कि समाज में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं जो व्यक्ति से बड़े होते हैं और व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। ये तथ्य ही सामाजिक तथ्य कहलाते हैं।
सामाजिक तथ्य की विशेषताएँ
- बाह्यता: सामाजिक तथ्य व्यक्ति से बाहर के होते हैं। ये व्यक्ति के जन्म से पहले से मौजूद होते हैं और व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी बने रहते हैं। उदाहरण के लिए, भाषा, कानून, रीति-रिवाज, सामाजिक संस्थाएं आदि।
- बाध्यता: सामाजिक तथ्य व्यक्ति पर दबाव डालते हैं और उसे अपने अनुसार व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं। अगर कोई व्यक्ति सामाजिक तथ्यों का पालन नहीं करता है तो उसे सामाजिक दंड भुगतना पड़ सकता है।
- वस्तुनिष्ठता: सामाजिक तथ्य वस्तुनिष्ठ होते हैं, यानी वे व्यक्ति की व्यक्तिगत राय या भावनाओं पर निर्भर नहीं करते हैं।
- सार्वभौमिकता: सामाजिक तथ्य पूरे समाज में लागू होते हैं और सभी सदस्यों पर समान रूप से लागू होते हैं।
- संस्थागत: सामाजिक तथ्य संस्थागत रूप से स्थापित होते हैं, जैसे कि परिवार, विद्यालय, सरकार आदि।
उदाहरण:
- भाषा: भाषा एक सामाजिक तथ्य है जो व्यक्ति के जन्म से पहले से मौजूद होता है और व्यक्ति को भाषा सीखने के लिए बाध्य करता है।
- कानून: कानून एक सामाजिक तथ्य है जो समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए बनाया जाता है और सभी को इसका पालन करना होता है।
- धर्म: धर्म एक सामाजिक तथ्य है जो लोगों के विश्वासों और व्यवहार को प्रभावित करता है।
सामाजिक तथ्यों का महत्व
सामाजिक तथ्यों का अध्ययन समाज को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ये हमें यह समझने में मदद करते हैं कि व्यक्ति समाज में कैसे व्यवहार करते हैं और समाज कैसे कार्य करता है। सामाजिक तथ्यों के अध्ययन से हम सामाजिक समस्याओं का समाधान भी ढूंढ सकते हैं।
सरल शब्दों में: सामाजिक तथ्य वे नियम, मान्यताएं और व्यवहार हैं जो समाज में लोगों को एक साथ जोड़ते हैं। ये हमारे विचारों, भावनाओं और व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
प्रश्न-3. सावयवी एवं यांत्रिक एकता के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:- सावयवी एवं यांत्रिक एकता में अंतर
ऑगस्ट कॉम्टे ने समाज को समझने के लिए सावयवी एकता और यांत्रिक एकता की अवधारणाएं दी थी। ये अवधारणाएं समाज के विकास के विभिन्न चरणों और सामाजिक एकता के विभिन्न रूपों को समझने में मदद करती हैं।
यांत्रिक एकता
- सरल समाज: यांत्रिक एकता मुख्य रूप से सरल, छोटे और कम विकसित समाजों में पाई जाती है।
- समानता: इन समाजों में लोग एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते होते हैं। उनके पास समान मूल्य, विश्वास और जीवन शैली होती है।
- सामूहिक चेतना: इन समाजों में सामूहिक चेतना बहुत मजबूत होती है। लोग समूह के हितों को व्यक्तिगत हितों से ऊपर रखते हैं।
- सादा श्रम विभाजन: श्रम का विभाजन बहुत सीमित होता है। लोग अक्सर एक ही तरह के काम करते हैं।
- कम जटिलता: सामाजिक संरचना बहुत सरल होती है।
उदाहरण: आदिवासी समाज, छोटे गाँव
सावयवी एकता
- जटिल समाज: सावयवी एकता मुख्य रूप से जटिल, आधुनिक और बड़े समाजों में पाई जाती है।
- विविधता: इन समाजों में लोग बहुत विविध होते हैं। उनके पास अलग-अलग पृष्ठभूमि, मूल्य और जीवन शैली होती है।
- व्यक्तिगत चेतना: व्यक्तिगत चेतना मजबूत होती है। लोग अपने व्यक्तिगत हितों को महत्व देते हैं।
- जटिल श्रम विभाजन: श्रम का विभाजन बहुत जटिल होता है। लोग विभिन्न प्रकार के काम करते हैं।
- जटिल संरचना: सामाजिक संरचना बहुत जटिल होती है।
उदाहरण: आधुनिक शहर, बड़े देश
यांत्रिक और सावयवी एकता में अंतर
विशेषता | यांत्रिक एकता | सावयवी एकता |
---|---|---|
समाज का प्रकार | सरल | जटिल |
समानता/विविधता | समानता | विविधता |
चेतना | सामूहिक | व्यक्तिगत |
श्रम विभाजन | सरल | जटिल |
संरचना | सरल | जटिल |
निष्कर्ष:
यांत्रिक और सावयवी एकता दो अलग-अलग प्रकार की सामाजिक एकता हैं जो समाज के विकास के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। यांत्रिक एकता में लोग एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते होते हैं, जबकि सावयवी एकता में लोग बहुत विविध होते हैं
प्रश्न-4.आत्महत्या एक सामाजिक घटना है। व्याख्या कीजिए ?
उत्तर:- आत्महत्या एक गंभीर सामाजिक घटना है जो समाज के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी हुई है। यह केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज की संरचना, मानसिक स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति, पारिवारिक दबाव, और सामाजिक अपेक्षाओं से भी प्रभावित होती है। आत्महत्या के कारणों में मानसिक अवसाद, अकेलापन, पारिवारिक विवाद, आर्थिक तंगी, असफलता का डर, और सामाजिक बहिष्कार प्रमुख होते हैं।
आत्महत्या की घटनाएं समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता की कमी को भी दर्शाती हैं। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और सामाजिक समर्थन तंत्र का अभाव इन घटनाओं को और बढ़ावा देता है। समाज में आत्महत्या के प्रति संवेदनशीलता और समझ बढ़ाने के लिए शिक्षा, परामर्श, और सहायता सेवाओं का विस्तार आवश्यक है।
आत्महत्या को रोकने के लिए समाज को एकजुट होकर मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलानी होगी और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ और प्रभावी बनाना होगा। समाज का प्रत्येक व्यक्ति यदि सहयोग और संवेदनशीलता दिखाए, तो आत्महत्या की घटनाओं में कमी आ सकती है।
प्रश्न-5. सामाजिक मूल्यों पर आर. के. मुकर्जी के दृष्टिकोण पर एक टिप्पणी लिखिए ?
उत्तर:- आर. के. मुकर्जी एक प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री थे जिन्होंने सामाजिक मूल्यों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने सामाजिक मूल्यों को समाज के आधारभूत तत्व के रूप में देखा और इनके महत्व पर जोर दिया।
मुख्य बिंदु:
- मूल्य: समाज की आत्मा: मुकर्जी के अनुसार, मूल्य समाज की आत्मा होते हैं। ये वे मानक होते हैं जो व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करते हैं और समाज को एकता प्रदान करते हैं।
- मूल्यों की गतिशीलता: उन्होंने यह भी बताया कि मूल्य स्थिर नहीं होते हैं, बल्कि समय के साथ बदलते रहते हैं। सामाजिक परिवर्तन के साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता है।
- मूल्यों का वर्गीकरण: मुकर्जी ने मूल्यों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया, जैसे कि पारिवारिक मूल्य, धार्मिक मूल्य, राजनीतिक मूल्य आदि।
- मूल्यों का समाजीकरण: उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मूल्यों का समाजीकरण परिवार, स्कूल, मीडिया आदि के माध्यम से होता है।
- मूल्यों का संघर्ष: उन्होंने यह भी बताया कि विभिन्न समूहों के बीच मूल्यों का संघर्ष हो सकता है, जिससे सामाजिक तनाव पैदा होता है।
मुकर्जी के दृष्टिकोण का महत्व:
- सामाजिक समस्याओं का समाधान: यह हमें सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए नीतियां बनाने में मदद करता है।
- समझ को गहरा बनाता है: मुकर्जी का दृष्टिकोण हमें समाज के विभिन्न पहलुओं को समझने में मदद करता है।
- सामाजिक परिवर्तन में सहायक: यह हमें सामाजिक परिवर्तन के कारणों और परिणामों को समझने में मदद करता है।
प्रश्न-6. मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए ?
उत्तर:- र्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या
कार्ल मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत समाजशास्त्र का एक आधारभूत सिद्धांत है। यह सिद्धांत समाज को दो मुख्य वर्गों में विभाजित करता है: पूंजीपति (जो उत्पादन के साधन रखते हैं) और श्रमिक (जो अपनी श्रम शक्ति बेचते हैं)। मार्क्स के अनुसार, इन दोनों वर्गों के बीच निरंतर संघर्ष होता रहता है, जो अंततः पूंजीवाद के पतन और एक समाजवादी समाज के उदय की ओर ले जाएगा।
मार्क्स के सिद्धांत की प्रमुख आलोचनाएं निम्नलिखित हैं:
- वर्ग संघर्ष का अतिरंजित रूप: कई आलोचकों का मानना है कि मार्क्स ने वर्ग संघर्ष को बहुत अधिक महत्व दिया है। वे कहते हैं कि समाज में अन्य प्रकार के संघर्ष भी होते हैं, जैसे कि लिंग, जाति और धर्म के आधार पर संघर्ष।
- समाज की स्थिरता की अनदेखी: मार्क्स के सिद्धांत में समाज की स्थिरता और सहयोग की भूमिका को कम महत्व दिया गया है। कई समाजशास्त्री मानते हैं कि समाज में सहयोग और एकता भी होती है, जो संघर्ष के बावजूद समाज को बनाए रखती है।
- पूंजीवाद का एकतरफा दृष्टिकोण: मार्क्स ने पूंजीवाद को एक शोषणकारी व्यवस्था के रूप में चित्रित किया है। हालांकि, कई आलोचकों का मानना है कि पूंजीवाद ने आर्थिक विकास और लोगों के जीवन स्तर में सुधार किया है।
- समाजवाद के आदर्शवादी दृष्टिकोण: मार्क्स ने समाजवाद को एक आदर्श समाज के रूप में चित्रित किया है, जहां सभी लोग समान होंगे। हालांकि, इतिहास ने दिखाया है कि समाजवादी समाजों में भी असमानता और शोषण होता है।
- ऐतिहासिक भौतिकवाद की सीमाएं: मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत, जो कहता है कि अर्थव्यवस्था समाज के सभी पहलुओं को निर्धारित करती है, कई आलोचकों द्वारा सीमित माना जाता है। वे कहते हैं कि संस्कृति, राजनीति और अन्य कारक भी समाज को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
निष्कर्ष:
मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत समाजशास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन यह सिद्धांत पूरी तरह से सही नहीं है। इस सिद्धांत की कई आलोचनाएं हैं और इसे अन्य सिद्धांतों के साथ मिलाकर समाज को समझने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
प्रश्न-7. नौकरशाही की विशेषताओं की विवेचना कीजिए ?
उत्तर:- नौकरशाही आधुनिक समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था है जो किसी भी संगठन, चाहे वह सरकारी हो या निजी, को कुशलतापूर्वक चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नौकरशाही की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:
1. विशेषज्ञता (Specialization):
- कार्यों का विभाजन: नौकरशाही में कार्यों को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित किया जाता है और प्रत्येक कर्मचारी को एक विशेष कार्य सौंपा जाता है।
- कुशलता में वृद्धि: विशेषज्ञता के कारण कर्मचारी अपने कार्य में कुशल हो जाते हैं जिससे कार्य की गुणवत्ता में सुधार होता है।
2. अधिकार का औपचारिक ढांचा (Formal Hierarchy):
- अधिकार का स्पष्ट वितरण: नौकरशाही में प्रत्येक पद के लिए स्पष्ट अधिकार और जिम्मेदारी निर्धारित होती है।
- आदेश की श्रृंखला: आदेश ऊपर से नीचे की ओर जाते हैं और जानकारी नीचे से ऊपर की ओर जाती है।
3. लिखित नियम और कानून (Written Rules and Regulations):
- कार्यप्रणाली का मानकीकरण: नौकरशाही में लिखित नियम और कानून होते हैं जो सभी कर्मचारियों के लिए बाध्यकारी होते हैं।
- निष्पक्षता: नियमों का पालन करने से सभी कर्मचारियों के साथ समान व्यवहार होता है।
4. तर्कसंगतता (Rationality):
- लक्ष्य-उन्मुखी: नौकरशाही में सभी कार्य संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं।
- कार्यकुशलता: कार्य को कुशलतापूर्वक करने के लिए तार्किक तरीकों का उपयोग किया जाता है।
5. अस्थायी पद (Impersonality):
- व्यक्तिगत संबंधों से ऊपर: नौकरशाही में व्यक्तिगत संबंधों की अपेक्षा नियमों और कानूनों को अधिक महत्व दिया जाता है।
- निष्पक्षता: व्यक्तिगत पक्षपात से बचने के लिए निर्णय तथ्यों पर आधारित होते हैं।
6. योग्यता के आधार पर नियुक्ति (Recruitment on the basis of merit):
- योग्यता का महत्व: नौकरशाही में कर्मचारियों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर किया जाता है।
- पारदर्शिता: नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी होती है।
7. कर्मचारियों का स्थायीपन (Career Orientation):
- जीवन भर का करियर: नौकरशाही में कर्मचारियों को स्थायी पद प्रदान किया जाता है।
- प्रोत्साहन: कर्मचारियों को उनके कार्य के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
नौकरशाही के फायदे
- कुशलता: कार्य को कुशलतापूर्वक किया जाता है।
- निष्पक्षता: सभी के साथ समान व्यवहार होता है।
- पारदर्शिता: प्रक्रियाएं पारदर्शी होती हैं।
- स्थिरता: संगठन को स्थिरता प्रदान करती है।
नौकरशाही के नुकसान
- अनावश्यक औपचारिकता: अनावश्यक औपचारिकताएं कार्य को धीमा कर सकती हैं।
- लचीलेपन का अभाव: नियमों के कारण लचीलेपन का अभाव होता है।
- अधिकारवाद: अधिकारियों का दुरुपयोग हो सकता है।
- मानवीय पहलू की अनदेखी: व्यक्तिगत जरूरतों को कम महत्व दिया जाता है।
प्रश्न-8. जाति एवं वर्ग पर जी. एस. घुरिये के दृष्टिकोण पर एक टिप्पणी लिखिए ?
उत्तर:- जी.एस. घुरिये एक प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री थे जिन्होंने भारतीय समाज, विशेषकर जाति व्यवस्था पर गहन अध्ययन किया। उनके विचारों ने भारतीय समाजशास्त्र को एक नई दिशा दी। आइए उनके जाति और वर्ग के संबंध में विचारों पर गौर करें:
जाति पर दृष्टिकोण
जाति व्यवस्था एक सामाजिक संस्था: घुरिये ने जाति को एक सामाजिक संस्था के रूप में देखा, जो धर्म, अर्थव्यवस्था और राजनीति से गहराई से जुड़ी हुई है।
जाति की उत्पत्ति: उन्होंने जाति की उत्पत्ति को विभिन्न कारकों जैसे व्यवसाय, स्थान और गोत्र से जोड़ा।
जाति की गतिशीलता: घुरिये के अनुसार, जाति एक स्थिर संस्था नहीं है, बल्कि यह समय के साथ बदलती रहती है। उन्होंने जाति परिवर्तन और अंतर्विवाह जैसे बदलावों पर भी प्रकाश डाला।
जाति की सकारात्मक भूमिका: उन्होंने जाति की कुछ सकारात्मक भूमिकाओं जैसे सामाजिक एकता, पारिवारिक बंधन और सामुदायिक सेवाओं पर भी जोर दिया।
जाति की नकारात्मक भूमिका: हालांकि, उन्होंने जाति के नकारात्मक पहलुओं जैसे असमानता, भेदभाव और सामाजिक गतिशीलता में बाधाओं पर भी प्रकाश डाला।
वर्ग पर दृष्टिकोण
जाति और वर्ग का संबंध: घुरिये ने जाति और वर्ग के बीच संबंध को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि कैसे जाति व्यवस्था ने भारत में वर्ग संरचना को प्रभावित किया है।
वर्ग संघर्ष: उन्होंने भारत में वर्ग संघर्ष की संभावना पर भी चर्चा की, हालांकि उन्होंने इसे पश्चिमी देशों की तरह तीव्र नहीं माना।
घुरिये के विचारों का महत्व
भारतीय समाज का गहन अध्ययन: घुरिये ने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर गहन अध्ययन किया और जाति व्यवस्था को समझने के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान किया।
जाति परिवर्तन पर जोर: उन्होंने जाति की गतिशील प्रकृति पर जोर दिया और यह दिखाया कि जाति व्यवस्था समय के साथ बदल सकती है।
समाज सुधार के लिए प्रेरणा: उनके विचारों ने सामाजिक सुधारकों को जाति व्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रेरित किया।
आलोचनाएं
पारंपरिक दृष्टिकोण: कुछ विद्वानों का मानना है कि घुरिये का दृष्टिकोण पारंपरिक है और उन्होंने जाति के संरचनात्मक असमानताओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।
अंतर्विवाह पर सीमित ध्यान: उन्होंने अंतर्विवाह के महत्व को कम आंका और जाति परिवर्तन की गति को धीमा बताया।
प्रश्न-9.कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
उत्तर:-
प्रश्न-10. ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
उत्तर:- ऐतिहासिक भौतिकवाद कार्ल मार्क्स द्वारा विकसित एक सिद्धांत है जो इतिहास के विकास को समझने का एक तरीका प्रस्तुत करता है। यह सिद्धांत मानता है कि मानव समाज का विकास मुख्य रूप से आर्थिक कारकों, विशेषकर उत्पादन के साधनों और उत्पादन के संबंधों से प्रभावित होता है।
मूल विचार:
- आर्थिक आधार: मार्क्स के अनुसार, कोई भी समाज एक आर्थिक आधार पर खड़ा होता है, जो उत्पादन के साधनों (जैसे भूमि, श्रम, पूंजी) और उत्पादन के संबंधों (जैसे दासत्व, सामंतवाद, पूंजीवाद) से बनता है।
- उत्पादन के साधनों का स्वामित्व: समाज में उत्पादन के साधनों का स्वामित्व किसके पास है, यह समाज की संरचना और विकास को निर्धारित करता है।
- वर्ग संघर्ष: उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के आधार पर समाज में वर्गों का निर्माण होता है। इन वर्गों के बीच संघर्ष होता है, जो सामाजिक परिवर्तन का मुख्य प्रेरक बल होता है।
- ऐतिहासिक भौतिकवाद का विकास: मार्क्स का मानना था कि इतिहास एक रैखिक प्रक्रिया है, जिसमें एक समाज दूसरे समाज में बदलता रहता है। उन्होंने इतिहास को दास समाज, सामंतवादी समाज, पूंजीवादी समाज और अंततः समाजवादी समाज में विभाजित किया।
ऐतिहासिक भौतिकवाद की मुख्य विशेषताएं:
- भौतिकवाद: यह सिद्धांत भौतिक दुनिया को इतिहास के विकास का मुख्य कारक मानता है।
- वर्ग संघर्ष: यह वर्ग संघर्ष को इतिहास के इंजन के रूप में देखता है।
- परिवर्तनशीलता: यह सिद्धांत समाज को एक स्थिर इकाई नहीं, बल्कि लगातार बदलते हुए मानता है।
- समाजवाद की ओर अग्रसर: मार्क्स का मानना था कि इतिहास अंततः समाजवाद की ओर अग्रसर होगा।
आलोचनाएं:
- अति सरलीकरण: कई आलोचकों का मानना है कि मार्क्स ने इतिहास को बहुत सरल बना दिया है और अन्य कारकों जैसे संस्कृति, राजनीति और धर्म को कम महत्व दिया है।
- भविष्यवाणी का असफल होना: मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत, कई समाजवादी देशों में असमानता और शोषण बढ़ गया है।
- लचीलेपन का अभाव: यह सिद्धांत समाज के सभी परिवर्तनों को समझाने में सक्षम नहीं है।
निष्कर्ष:
ऐतिहासिक भौतिकवाद समाजशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसने इतिहास और समाज को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया है। हालांकि, इस सिद्धांत की अपनी सीमाएं हैं और इसे अन्य सिद्धांतों के साथ मिलाकर समाज को समझने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
प्रश्न-11. धर्म पर दुर्खीम के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:- एमिल दुर्खीम एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री थे जिन्होंने धर्म को एक सामाजिक तथ्य के रूप में देखा। उनके अनुसार, धर्म व्यक्तिगत विश्वासों से कहीं अधिक है, बल्कि यह समाज की एक मूलभूत संरचना है।
दुर्खीम के अनुसार धर्म:
- सामाजिक एकता का स्रोत: धर्म समाज को एकजुट करने का काम करता है। धार्मिक अनुष्ठान और विश्वास लोगो को एक साथ लाते हैं और साझा मूल्यों को विकसित करने में मदद करते हैं।
- सामाजिक जीवन का प्रतिबिंब: धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान समाज की संरचना और मूल्यों का प्रतिबिंब होते हैं।
- समाज का प्रतिनिधित्व: धार्मिक प्रतीकों और विश्वासों के माध्यम से समाज अपने मूल्यों और आदर्शों को व्यक्त करता है।
- सामाजिक नियंत्रण: धर्म सामाजिक नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण साधन है। यह लोगों को सामाजिक नियमों और अपेक्षाओं का पालन करने के लिए प्रेरित करता है।
दुर्खीम ने धर्म को दो श्रेणियों में विभाजित किया:
- यांत्रिक एकता: सरल समाजों में, जहां लोग समान कार्य करते हैं, धर्म यांत्रिक एकता को बनाए रखता है।
- जैविक एकता: जटिल समाजों में, जहां लोग विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं, धर्म जैविक एकता को बनाए रखता है।
निष्कर्ष:
दुर्खीम के अनुसार, धर्म व्यक्तिगत अनुभवों से कहीं अधिक है। यह समाज की एक मूलभूत संरचना है जो सामाजिक एकता, सामाजिक नियंत्रण और सामाजिक जीवन को अर्थ प्रदान करती है।
प्रश्न-13 दुर्खीम के श्रम विभाजन के विचारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:- दुर्खीम का श्रम विभाजन का सिद्धांत
एमिल दुर्खीम एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री थे जिन्होंने समाज के विकास में श्रम विभाजन की महत्वपूर्ण भूमिका बताई। उनके अनुसार, श्रम विभाजन न केवल आर्थिक उत्पादन को बढ़ाता है बल्कि समाज को एकजुट करने और सामाजिक एकता को मजबूत करने में भी मदद करता है।
दुर्खीम ने श्रम विभाजन को दो प्रकारों में विभाजित किया:
- यांत्रिक एकता: सरल समाजों में, जहां लोग समान कार्य करते हैं, वहां यांत्रिक एकता होती है। इस प्रकार के समाज में लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते होते हैं और साझा विश्वासों और मूल्यों से बंधे होते हैं।
- जैविक एकता: जटिल समाजों में, जहां लोग विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं, वहां जैविक एकता होती है। इस प्रकार के समाज में लोग एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और एक दूसरे के पूरक होते हैं।
श्रम विभाजन के लाभ:
- उत्पादकता में वृद्धि: श्रम विभाजन से उत्पादकता में वृद्धि होती है क्योंकि लोग अपने-अपने विशेषज्ञता वाले क्षेत्र में काम करते हैं।
- नवाचार: श्रम विभाजन नए विचारों और तकनीकों को विकसित करने को प्रोत्साहित करता है।
- सामाजिक एकता: श्रम विभाजन से लोग एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं और इससे सामाजिक एकता बढ़ती है।
श्रम विभाजन की समस्याएं:
- अलगाव: अत्यधिक श्रम विभाजन से लोग एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं और सामाजिक संबंध कमजोर हो सकते हैं।
- अनैतिक श्रम: कभी-कभी श्रम विभाजन अत्यधिक हो जाता है, जिससे श्रमिकों का शोषण हो सकता है।
- सामाजिक असमानता: श्रम विभाजन सामाजिक असमानता को बढ़ा सकता है क्योंकि कुछ लोग दूसरों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।
प्रश्न-14. कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
उत्तर:- र्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या
कार्ल मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत समाजशास्त्र का एक आधारभूत सिद्धांत है। यह सिद्धांत समाज को दो मुख्य वर्गों में विभाजित करता है: पूंजीपति (जो उत्पादन के साधन रखते हैं) और श्रमिक (जो अपनी श्रम शक्ति बेचते हैं)। मार्क्स के अनुसार, इन दोनों वर्गों के बीच निरंतर संघर्ष होता रहता है, जो अंततः पूंजीवाद के पतन और एक समाजवादी समाज के उदय की ओर ले जाएगा।
मार्क्स के सिद्धांत की प्रमुख आलोचनाएं निम्नलिखित हैं:
- वर्ग संघर्ष का अतिरंजित रूप: कई आलोचकों का मानना है कि मार्क्स ने वर्ग संघर्ष को बहुत अधिक महत्व दिया है। वे कहते हैं कि समाज में अन्य प्रकार के संघर्ष भी होते हैं, जैसे कि लिंग, जाति और धर्म के आधार पर संघर्ष।
- समाज की स्थिरता की अनदेखी: मार्क्स के सिद्धांत में समाज की स्थिरता और सहयोग की भूमिका को कम महत्व दिया गया है। कई समाजशास्त्री मानते हैं कि समाज में सहयोग और एकता भी होती है, जो संघर्ष के बावजूद समाज को बनाए रखती है।
- पूंजीवाद का एकतरफा दृष्टिकोण: मार्क्स ने पूंजीवाद को एक शोषणकारी व्यवस्था के रूप में चित्रित किया है। हालांकि, कई आलोचकों का मानना है कि पूंजीवाद ने आर्थिक विकास और लोगों के जीवन स्तर में सुधार किया है।
- समाजवाद के आदर्शवादी दृष्टिकोण: मार्क्स ने समाजवाद को एक आदर्श समाज के रूप में चित्रित किया है, जहां सभी लोग समान होंगे। हालांकि, इतिहास ने दिखाया है कि समाजवादी समाजों में भी असमानता और शोषण होता है।
- ऐतिहासिक भौतिकवाद की सीमाएं: मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत, जो कहता है कि अर्थव्यवस्था समाज के सभी पहलुओं को निर्धारित करती है, कई आलोचकों द्वारा सीमित माना जाता है। वे कहते हैं कि संस्कृति, राजनीति और अन्य कारक भी समाज को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
निष्कर्ष:
मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत समाजशास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन यह सिद्धांत पूरी तरह से सही नहीं है। इस सिद्धांत की कई आलोचनाएं हैं और इसे अन्य सिद्धांतों के साथ मिलाकर समाज को समझने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
प्रश्न-15. आदर्श प्रारूप पर मैक्स वेबर के विचारों की चर्चा कीजिए
उत्तर:- मैक्स वेबर के आदर्श प्रारूप का सिद्धांत
मैक्स वेबर, एक जर्मन समाजशास्त्री थे, जिन्होंने समाजशास्त्रीय विश्लेषण के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण विकसित किया जिसे “आदर्श प्रारूप” (Ideal Type) कहा जाता है।
आदर्श प्रारूप क्या है?
आदर्श प्रारूप एक ऐसी अवधारणा है जो किसी विशिष्ट सामाजिक घटना या संस्था के शुद्धतम रूप का प्रतिनिधित्व करती है। यह वास्तविक दुनिया में मौजूद किसी भी विशिष्ट उदाहरण से अधिक सैद्धांतिक है। यह एक मानसिक निर्माण है जिसे सामाजिक वास्तविकता को समझने और तुलना करने के लिए एक मानक के रूप में उपयोग किया जाता है।
आदर्श प्रारूप का उपयोग क्यों करते हैं?
- तुलनात्मक विश्लेषण: आदर्श प्रारूप विभिन्न सामाजिक घटनाओं की तुलना करने के लिए एक आधार प्रदान करता है।
- जटिलताओं को सरल बनाना: यह जटिल सामाजिक वास्तविकता को सरल बनाने में मदद करता है।
- विश्लेषणात्मक उपकरण: यह एक शक्तिशाली विश्लेषणात्मक उपकरण है जो शोधकर्ताओं को सामाजिक घटनाओं के पीछे के कारणों को समझने में मदद करता है।
उदाहरण:
- नौकरशाही: वेबर ने नौकरशाही का आदर्श प्रारूप विकसित किया, जिसमें स्पष्ट पदानुक्रम, नियम, और तर्कसंगतता शामिल है।
- धर्म: उन्होंने विभिन्न धर्मों के आदर्श प्रारूप विकसित किए, जैसे कि कैथोलिक चर्च, प्रोटेस्टेंट चर्च, और इस्लाम।
आदर्श प्रारूप की सीमाएं:
- सांस्कृतिक पूर्वाग्रह: आदर्श प्रारूप शोधकर्ता के अपने सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को प्रतिबिंबित कर सकते हैं।
- अति सरलीकरण: आदर्श प्रारूप वास्तविकता को अत्यधिक सरल बना सकता है।
प्रश्न-16.प्रोटेस्टेंट एथिक्स (धर्म) एवं पूँजीवाद के मध्य क्या सम्बन्ध है ? विवेचना कीजिए।
उत्तर:- प्रोटेस्टेंट एथिक्स और पूँजीवाद के मध्य संबंध को समझने के लिए समाजशास्त्री मैक्स वेबर की विचारधारा महत्वपूर्ण है। वेबर ने अपनी पुस्तक “प्रोटेस्टेंट एथिक एंड द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म” में बताया कि प्रोटेस्टेंट धर्म, विशेष रूप से कैल्विनिज्म, ने पूँजीवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रोटेस्टेंट एथिक्स ने कड़ी मेहनत, अनुशासन, और आर्थिक सफलता को धार्मिक कर्तव्य के रूप में देखा। यह विश्वास कि आर्थिक सफलता ईश्वर की कृपा और चुने हुए होने का संकेत है, प्रोटेस्टेंट समाज में गहराई से व्याप्त था। इसने लोगों को धन अर्जित करने और उसे पुनः निवेश करने के लिए प्रेरित किया, न कि व्यक्तिगत उपभोग के लिए खर्च करने के लिए।
प्रोटेस्टेंट एथिक्स ने एक प्रकार की कार्य नैतिकता को जन्म दिया जिसमें श्रम, बचत, और पुनर्निवेश को महत्व दिया गया। इस नैतिकता ने पूँजीवाद के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार किया, जहाँ व्यवसायी और उद्योगपति आर्थिक प्रगति को नैतिक और धार्मिक समर्थन के साथ आगे बढ़ा सके।
इस प्रकार, प्रोटेस्टेंट एथिक्स ने न केवल आर्थिक गतिविधियों को धार्मिक मान्यता दी, बल्कि पूँजीवाद की नींव रखने में भी सहायता की। इसने एक ऐसी सांस्कृतिक मानसिकता को बढ़ावा दिया जो आर्थिक विकास और पूँजीवादी संरचना के अनुरूप थी। परिणामस्वरूप, प्रोटेस्टेंट समाजों में पूँजीवाद तेजी से पनपा और आर्थिक उन्नति को एक नैतिक और धार्मिक उत्तरदायित्व के रूप में देखा गया।
प्रश्न-17. डी.पी. मुखर्जी के भारतीय समाजशास्त्र में योगदान की विवेचना कीजिए ?
उत्तर:- डी.पी. मुखर्जी भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख विचारकों में से एक थे। उन्होंने भारतीय समाज की विशिष्टताओं और सांस्कृतिक परंपराओं को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समझने का महत्वपूर्ण प्रयास किया। मुखर्जी का योगदान भारतीय समाजशास्त्र को पश्चिमी प्रभावों से मुक्त कर एक स्वदेशी दृष्टिकोण प्रदान करना था।
उनका मानना था कि भारतीय समाज को समझने के लिए भारतीय संस्कृति, परंपराओं, और जीवन शैली का गहन अध्ययन आवश्यक है। उन्होंने भारतीय समाज की विशिष्टताओं को समझने के लिए “संस्कृति” और “समाज” के बीच के संबंध पर जोर दिया। मुखर्जी ने भारतीय समाजशास्त्र में सांस्कृतिक दृष्टिकोण को स्थापित किया, जो विभिन्न सामाजिक संस्थानों और प्रक्रियाओं को भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में विश्लेषित करता है।
डी.पी. मुखर्जी ने समाजशास्त्र में “संघर्ष और सहयोग” की अवधारणा को भी प्रस्तुत किया, जो भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों और जातियों के बीच संबंधों को समझने में सहायक है। उनका दृष्टिकोण भारतीय समाज की जटिलता और विविधता को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित और समग्र दृष्टिकोण प्रदान करता है। इस प्रकार, डी.पी. मुखर्जी ने भारतीय समाजशास्त्र को एक नई दिशा और दृष्टिकोण दिया, जो आज भी प्रासंगिक है।
प्रश्न-18. जी.एस. घुरिये के जाति, वर्ग और व्यवसाय सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए?
उत्तर:- जी.एस. घुर्ये के जाति, वर्ग और व्यवसाय सम्बन्धी विचार
जी.एस. घुर्ये एक प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री थे जिन्होंने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर जाति, वर्ग और व्यवसाय पर गहन अध्ययन किया। उनके विचारों ने भारतीय समाजशास्त्र को गहराई से प्रभावित किया है। आइए उनके इन विचारों की विस्तृत विवेचना करते हैं:
जाति पर घुर्ये के विचार
- जाति व्यवस्था एक सामाजिक संस्था: घुर्ये ने जाति को एक जटिल सामाजिक संस्था के रूप में देखा, जो भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है। उन्होंने जाति को केवल एक सामाजिक वर्गीकरण नहीं, बल्कि एक जीवन शैली, विश्वास और मूल्यों का समूह माना।
- जाति की उत्पत्ति: घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों का विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकाला कि जाति की उत्पत्ति कई कारकों का परिणाम है, जैसे कि व्यवसायगत विशेषज्ञता, भौगोलिक अलगाव और सामाजिक संगठन।
- जाति परिवर्तन: घुर्ये ने यह भी देखा कि जाति व्यवस्था स्थिर नहीं है, बल्कि समय के साथ परिवर्तनशील है। उन्होंने जाति परिवर्तन के विभिन्न तरीकों, जैसे कि अंतर्जातीय विवाह, सामाजिक आंदोलन और आर्थिक परिवर्तन, का अध्ययन किया।
- जाति और आधुनिकीकरण: घुर्ये ने आधुनिकीकरण के प्रभावों को जाति व्यवस्था पर भी देखा। उन्होंने कहा कि आधुनिकीकरण के साथ जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है, लेकिन अभी भी भारतीय समाज में इसका महत्वपूर्ण प्रभाव है।
वर्ग पर घुर्ये के विचार
- वर्ग और जाति का संबंध: घुर्ये ने वर्ग और जाति के बीच संबंधों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने कहा कि भारत में वर्ग और जाति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन दोनों अलग-अलग अवधारणाएं हैं।
- वर्ग संघर्ष: घुर्ये ने भारतीय समाज में वर्ग संघर्ष को एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना। उन्होंने कहा कि आर्थिक असमानता और सामाजिक अन्याय वर्ग संघर्ष को जन्म देते हैं।
- वर्ग गतिशीलता: घुर्ये ने वर्ग गतिशीलता को भी महत्वपूर्ण माना। उन्होंने कहा कि आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन के साथ वर्ग गतिशीलता बढ़ती है।
व्यवसाय पर घुर्ये के विचार
- व्यवसाय और जाति: घुर्ये ने व्यवसाय और जाति के बीच घनिष्ठ संबंध को देखा। उन्होंने कहा कि भारत में अधिकतर लोगों का व्यवसाय उनकी जाति से जुड़ा होता है।
- व्यवसायगत विशेषज्ञता: घुर्ये ने व्यवसायगत विशेषज्ञता को जाति व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार माना। उन्होंने कहा कि विभिन्न जातियां विभिन्न प्रकार के व्यवसायों से जुड़ी हुई हैं।
- व्यवसाय और आधुनिकीकरण: घुर्ये ने आधुनिकीकरण के प्रभावों को व्यवसाय पर भी देखा। उन्होंने कहा कि आधुनिकीकरण के साथ व्यवसायगत पैटर्न बदल रहे हैं और लोग पारंपरिक व्यवसायों को छोड़कर नए व्यवसायों को अपना रहे हैं।
घुर्ये के विचारों का महत्व
जी.एस. घुर्ये के विचार भारतीय समाजशास्त्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने भारतीय समाज के जटिल पहलुओं को समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके विचारों ने जाति, वर्ग और व्यवसाय जैसे मुद्दों पर व्यापक बहस को प्रेरित किया है।
प्रश्न-19. अतिरिक्त मूल्यों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- अतिरिक्त मूल्य एक आर्थिक अवधारणा है, जिसे कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक “दास कैपिटल” में गहराई से विश्लेषित किया था। यह अवधारणा पूंजीवाद के तहत श्रमिकों के शोषण को समझने के लिए केंद्रबिंदु है।
अतिरिक्त मूल्य क्या है?
- मूल्य का सृजन: मार्क्स के अनुसार, वस्तु का मूल्य श्रमिक द्वारा उसमें लगाए गए श्रम से निर्धारित होता है। श्रमिक अपनी श्रम शक्ति को बेचकर पूंजीपति के लिए वस्तुओं का उत्पादन करते हैं।
- अतिरिक्त मूल्य का निर्माण: श्रमिक द्वारा उत्पादित मूल्य में से एक हिस्सा उसे मजदूरी के रूप में मिलता है, जो उसके जीवन यापन के लिए आवश्यक होता है। शेष मूल्य, जिसे अतिरिक्त मूल्य कहते हैं, पूंजीपति द्वारा हड़प लिया जाता है। यह अतिरिक्त मूल्य पूंजीपति के मुनाफे का स्रोत होता है।
- श्रमिक का शोषण: मार्क्स के अनुसार, अतिरिक्त मूल्य का निर्माण श्रमिकों के शोषण का परिणाम है। पूंजीपति श्रमिकों से अधिक मूल्य का उत्पादन करवाते हैं और उन्हें केवल न्यूनतम मजदूरी देते हैं।
अतिरिक्त मूल्य का उदाहरण
मान लीजिए एक कारखाने में एक श्रमिक एक दिन में 10 घंटे काम करता है। मान लीजिए कि 4 घंटे में वह अपनी मजदूरी के बराबर मूल्य का उत्पादन करता है। शेष 6 घंटों में वह अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करता है, जिसे पूंजीपति अपने मुनाफे के रूप में ले लेता है।
प्रश्न-20.परम्पराओं के द्वन्द्व पर एक लेख लिखिए?
उत्तर:- परम्पराएं समाज की धरोहर होती हैं। ये रिवाज, आदर्श और मूल्य हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चले आते हैं और एक समाज को उसकी पहचान देते हैं। परन्तु, परम्पराएं स्थिर नहीं होतीं, और न ही ये हमेशा प्रगति के पथ पर ले जाती हैं। यही कारण है कि परम्पराओं के साथ एक द्वंद्व का संबंध बन जाता है।
परम्पराओं के सकारात्मक पहलू कई हैं। ये हमें जड़ें देती हैं, हमारे अतीत से जोड़ती हैं, और एक सुरक्षा का भाव प्रदान करती हैं। परम्पराएं हमें एक समुदाय का हिस्सा होने का एहसास दिलाती हैं और सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में मदद करती हैं। उदाहरण के लिए, परम्परागत त्योहार हमें एक साथ लाते हैं और हमारे सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करते हैं।
परन्तु, परम्पराएं कभी-कभी रूढ़ीवादिता को जन्म दे सकती हैं और सामाजिक परिवर्तन में बाधा बन सकती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ परम्पराएं महिलाओं के अधिकारों को सीमित करती हैं या जाति व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करती हैं। ऐसी परम्पराओं को चुनौती देना और बदलना आवश्यक होता है।
इस द्वंद्व को कैसे संतुलित किया जाए, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। हमें अपनी परम्पराओं का सम्मान करना चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि वे आज के समय में कितनी प्रासंगिक हैं। हमें उन परम्पराओं को अपनाना चाहिए जो हमें मजबूत बनाती हैं और त्याग देना चाहिए जो हमें पीछे खींचती हैं।
कुछ तरीके जिनसे हम परम्पराओं के द्वंद्व को संतुलित कर सकते हैं:
- परम्पराओं को आलोचनात्मक दृष्टि से परखें। यह सवाल करें कि क्या ये परम्पराएं आज भी प्रासंगिक हैं और समाज के लिए हितकारी हैं।
- परम्पराओं को बदलते समय सावधानी बरतें। अचानक और पूरी तरह से परम्पराओं को त्याग देने से सामाजिक अशांति पैदा हो सकती है।
- नई परम्पराओं का निर्माण करें जो आधुनिक समाज के मूल्यों के अनुरूप हों।
परम्पराओं का द्वंद्व एक जटिल मुद्दा है। लेकिन, सचेत प्रयासों और आलोचनात्मक चिन्तन के द्वारा, हम इस द्वंद्व को संतुलित कर सकते हैं और परम्पराओं को एक सकारात्मक शक्ति बना सकते हैं।
Section-C
प्रश्न-1. सामाजिक क्रिया को परिभाषित कीजिए एवं इसके प्रकार बताइए
उत्तर:- सामाजिक क्रिया (Social Action) समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसे प्रमुख रूप से मैक्स वेबर ने परिभाषित किया है। सामाजिक क्रिया का अर्थ वह क्रिया है, जिसका अन्य लोगों के व्यवहार या प्रतिक्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है और जिसे व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति और समाज की अपेक्षाओं के संदर्भ में करता है।
वेबर के अनुसार, सामाजिक क्रिया चार प्रकार की होती है:
- परंपरागत क्रिया (Traditional Action):
- यह क्रिया उन परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं पर आधारित होती है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही होती हैं। इसमें व्यक्ति बिना किसी तर्क या विश्लेषण के परंपरागत तरीके से कार्य करता है। उदाहरणस्वरूप, त्योहारों पर विशेष प्रकार के भोजन बनाना या धार्मिक अनुष्ठान करना।
- भावनात्मक क्रिया (Affective Action):
- यह क्रिया भावनाओं और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं पर आधारित होती है। इसमें व्यक्ति का व्यवहार उसकी भावनाओं, संवेदनाओं और मनोवैज्ञानिक स्थितियों द्वारा नियंत्रित होता है। उदाहरण के लिए, क्रोध में आकर कोई चीज तोड़ देना या खुशी में झूम उठना।
- सुविचारित क्रिया (Value-Rational Action):
- इस प्रकार की क्रिया में व्यक्ति किसी आदर्श या मूल्य को ध्यान में रखकर कार्य करता है, चाहे परिणाम कुछ भी हो। इसमें तर्क और विचार महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन मूल उद्देश्य मूल्य और आदर्श होते हैं। उदाहरण के लिए, सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करते हुए संघर्ष करना।
- साध्य-उपायानुक क्रिया (Instrumental-Rational Action):
- यह क्रिया सबसे अधिक तर्कसंगत होती है, जिसमें व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साधनों और उपायों का विश्लेषण करता है। इसमें व्यक्ति अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सबसे उपयुक्त और प्रभावी तरीकों का चयन करता है। उदाहरण के लिए, एक व्यवसायी अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए बाजार अनुसंधान करना और रणनीतियाँ बनाना।
सामाजिक क्रिया के ये चार प्रकार समाज में व्यक्ति के व्यवहार को समझने और विश्लेषित करने के विभिन्न आयाम प्रस्तुत करते हैं। वेबर का सामाजिक क्रिया का सिद्धांत सामाजिक वैज्ञानिकों को समाज में व्यवहारिक प्रक्रियाओं को गहराई से समझने में मदद करता है और यह दर्शाता है कि कैसे व्यक्ति का सामाजिक संदर्भ और व्यक्तिगत विचारधारा उसके क्रियाकलापों को प्रभावित करते हैं।
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प्रश्न-2.अलगाव से आप क्या समझते हैं ? इसके स्रोत क्या है ? बताइए।
उत्तर:- अलगाव (Alienation) एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अवधारणा है, जिसका मतलब है कि व्यक्ति समाज से, अपने कार्यों से, और यहाँ तक कि स्वयं से भी अलग या विमुख महसूस करता है। अलगाव की यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति अपनी सामाजिक, आर्थिक, या व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण खुद को असहाय, शक्तिहीन, या बेगाना महसूस करता है।
अलगाव के विभिन्न स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- श्रम का अलगाव (Alienation from Labor):
- यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति अपने कार्य से कोई संबंध महसूस नहीं करता। यह अक्सर औद्योगिक समाज में देखने को मिलता है, जहां श्रमिक अपने कार्य के अंतिम उत्पाद से अलग हो जाते हैं। कार्ल मार्क्स ने इस पर विशेष रूप से जोर दिया था कि पूँजीवादी समाज में श्रमिक अपने श्रम के उत्पाद से, श्रम की प्रक्रिया से, अन्य श्रमिकों से, और स्वयं से अलग हो जाते हैं।
- आर्थिक अलगाव (Economic Alienation):
- जब व्यक्ति आर्थिक रूप से असुरक्षित या वंचित होता है, तो वह समाज में अलग-थलग और असहाय महसूस करता है। आर्थिक विषमता और गरीबी व्यक्ति को समाज में अलगाव की भावना से ग्रस्त कर सकते हैं।
- सामाजिक अलगाव (Social Alienation):
- यह तब होता है जब व्यक्ति समाज में सामाजिक संबंधों और नेटवर्क से कटा हुआ महसूस करता है। इसमें जाति, धर्म, वर्ग, और लिंग जैसे सामाजिक भेदभाव शामिल हो सकते हैं, जो व्यक्ति को समाज से दूर और अलग-थलग कर देते हैं।
- राजनीतिक अलगाव (Political Alienation):
- जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी राजनीतिक व्यवस्था में कोई भागीदारी नहीं है या उसकी आवाज़ सुनी नहीं जाती, तो वह राजनीतिक रूप से अलग-थलग महसूस कर सकता है। यह लोकतंत्र में भागीदारी की कमी, सरकार से निराशा, और राजनीतिक अपवर्जन से उत्पन्न हो सकता है।
- मानसिक और भावनात्मक अलगाव (Mental and Emotional Alienation):
- जब व्यक्ति अपनी भावनाओं और मानसिक स्थिति से खुद को अलग महसूस करता है, तो यह मानसिक और भावनात्मक अलगाव कहलाता है। यह मानसिक बीमारियों, तनाव, और अवसाद के कारण हो सकता है।
अलगाव के ये स्रोत समाज में विभिन्न रूपों में मौजूद होते हैं और व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालते हैं। अलगाव को दूर करने के लिए समाज में समानता, न्याय, और सहभागिता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इससे व्यक्ति को समाज में अपनेपन का एहसास होता है और वह सक्रिय रूप से समाज के विकास में योगदान दे सकता है।
प्रश्न-3. मूल्यों की श्रेणीबद्धता से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक मूल्यों के महत्व को समझाइए।
उत्तर:- मूल्यों की श्रेणीबद्धता और सामाजिक मूल्यों का महत्व
मूल्यों की श्रेणीबद्धता क्या है?
मूल्यों की श्रेणीबद्धता का अर्थ है मूल्यों को विभिन्न श्रेणियों या समूहों में बाँटना। यह हमें मूल्यों की विस्तृत समझ प्रदान करता है और उनके बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। मूल्यों को विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे:
- व्यक्तिगत मूल्य: ये वे मूल्य हैं जो व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण होते हैं, जैसे ईमानदारी, करुणा, सम्मान आदि।
- सामाजिक मूल्य: ये वे मूल्य हैं जो समाज के लिए महत्वपूर्ण होते हैं और सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं, जैसे समानता, न्याय, स्वतंत्रता आदि।
- धार्मिक मूल्य: ये वे मूल्य हैं जो धर्म या आध्यात्मिक विश्वासों से निकलते हैं, जैसे दया, क्षमा, भक्ति आदि।
- राजनीतिक मूल्य: ये वे मूल्य हैं जो राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं, जैसे लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, समानता आदि।
सामाजिक मूल्यों का महत्व
सामाजिक मूल्य समाज के लिए बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। ये समाज को एक साथ बांधते हैं, सामाजिक व्यवहार को निर्देशित करते हैं और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सामाजिक मूल्यों का महत्व निम्नलिखित कारणों से है:
- समाज का आधार: सामाजिक मूल्य समाज का आधार होते हैं। ये समाज के सदस्यों के बीच विश्वास, सहयोग और समझदारी बढ़ाते हैं।
- व्यवहार का मार्गदर्शन: सामाजिक मूल्य व्यक्ति के व्यवहार को मार्गदर्शन करते हैं। ये हमें बताते हैं कि क्या सही है और क्या गलत।
- सामाजिक परिवर्तन: सामाजिक मूल्य सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक होते हैं। जब सामाजिक मूल्य बदलते हैं, तो समाज भी बदलता है।
- समाज की पहचान: सामाजिक मूल्य एक समाज की पहचान होते हैं। ये समाज को अन्य समाजों से अलग करते हैं।
- समाज का विकास: सामाजिक मूल्य समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये समाज को अधिक न्यायपूर्ण, समान और समृद्ध बनाने में मदद करते हैं।
उदाहरण के लिए:
- स्वतंत्रता: स्वतंत्रता का मूल्य व्यक्तियों को अपने विचारों और कार्यों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की अनुमति देता है।
- समानता: समानता का मूल्य समाज में सभी लोगों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है।
- न्याय: न्याय का मूल्य यह सुनिश्चित करता है कि सभी लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाए और उन्हें न्याय मिले।
प्रश्न-4. दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:- इमिल दुर्खीम एक प्रमुख समाजशास्त्री थे जिन्होंने आत्महत्या का समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया। उनके आत्महत्या के सिद्धांत को उनकी पुस्तक “ले सुइसाइड” (Le Suicide) में विस्तार से समझाया गया है। दुर्खीम ने आत्महत्या को एक व्यक्तिगत कृत्य के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक कारकों और संरचनाओं के परिणामस्वरूप देखा।
दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धांत में चार प्रमुख प्रकार की आत्महत्या का वर्णन किया गया है:
- एगोइस्टिक आत्महत्या (Egoistic Suicide):
- यह आत्महत्या तब होती है जब व्यक्ति समाज से अत्यधिक अलगाव महसूस करता है। जब व्यक्ति के समाजिक संबंध कमजोर होते हैं और वह अकेलापन और अवसाद महसूस करता है, तो वह अपनी जीवन में अर्थ की कमी महसूस कर सकता है। यह स्थिति आत्महत्या की ओर ले जा सकती है। उदाहरणस्वरूप, एकल जीवन जीने वाले या सामाजिक समर्थन की कमी से जूझ रहे लोग।
- एलट्रुइस्टिक आत्महत्या (Altruistic Suicide):
- यह आत्महत्या तब होती है जब व्यक्ति समाज में अत्यधिक जुड़ाव और अनुशासन महसूस करता है। ऐसे समाज में व्यक्ति खुद को समूह के हितों के लिए बलिदान करने के लिए प्रेरित हो सकता है। उदाहरणस्वरूप, सैनिक जो अपने देश के लिए जान दे देते हैं या धार्मिक कट्टरपंथी जो आत्मबलिदान करते हैं।
- एनोमिक आत्महत्या (Anomic Suicide):
- यह आत्महत्या तब होती है जब समाज में सामान्य नियम और मानदंड टूट जाते हैं या कमजोर हो जाते हैं। आर्थिक संकट, सामाजिक परिवर्तन, या नैतिक अस्थिरता के समय व्यक्ति जीवन में दिशा और स्थिरता की कमी महसूस कर सकता है, जिससे आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। उदाहरणस्वरूप, अचानक धन हानि या रोजगार खोने के बाद उत्पन्न स्थिति।
- फेटालिस्टिक आत्महत्या (Fatalistic Suicide):
- यह आत्महत्या तब होती है जब व्यक्ति अत्यधिक नियंत्रण और दमन का शिकार होता है। जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी जीवन पर अत्यधिक नियंत्रण है और उसके पास कोई विकल्प नहीं है, तो वह निराशा में आत्महत्या कर सकता है। उदाहरणस्वरूप, जेल में बंद कैदी या दास।
दुर्खीम का आत्महत्या का सिद्धांत समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से आत्महत्या को समझने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। उन्होंने दिखाया कि आत्महत्या केवल व्यक्तिगत समस्याओं का परिणाम नहीं है, बल्कि यह समाजिक संरचनाओं और सामुदायिक संबंधों से गहराई से जुड़ी होती है। दुर्खीम का यह विश्लेषण समाजशास्त्र में आत्महत्या की समझ को एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है और यह दर्शाता है कि सामाजिक कारक व्यक्तिगत निर्णयों और कार्यों को कैसे प्रभावित करते हैं।
प्रश्न-5.मार्क्स के ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए। मार्क्स का द्वन्द्ववाद हीगल के द्वन्द्ववाद से किस प्रकार भिन्न है ? विवेचना कीजिए।
उत्तर:- मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, समाज और इतिहास को समझने का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह सिद्धांत मानता है कि समाज निरंतर परिवर्तन की अवस्था में रहता है और यह परिवर्तन विरोधी शक्तियों के संघर्ष के परिणामस्वरूप होता है। मार्क्स के अनुसार, समाज में आर्थिक आधार ही सबसे महत्वपूर्ण है और यह सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
- विरोधी शक्तियों का संघर्ष: समाज में हमेशा दो विरोधी शक्तियां होती हैं, जैसे कि पूंजीपति और श्रमिक। इन शक्तियों के बीच संघर्ष होता है और इसी संघर्ष से सामाजिक परिवर्तन होता है।
- ऐतिहासिक भौतिकवाद: मार्क्स ने इतिहास को भौतिक शक्तियों द्वारा संचालित माना। उन्होंने कहा कि उत्पादन के साधन ही इतिहास को आकार देते हैं।
- आर्थिक आधार: मार्क्स के अनुसार, आर्थिक आधार ही समाज का सबसे महत्वपूर्ण आधार है और यह सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचनाओं को निर्धारित करता है।
- अंततः समाजवाद: मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद अंततः अपने विरोधाभासों के कारण नष्ट हो जाएगा और समाजवाद की स्थापना होगी।
मार्क्स और हीगल के द्वंद्ववाद में अंतर
मार्क्स और हीगल दोनों ने द्वंद्ववाद के सिद्धांत को स्वीकार किया लेकिन उनके दृष्टिकोण में काफी अंतर था:
भौतिकवाद: हीगल का दर्शन आदर्शवादी था, जबकि मार्क्स का दर्शन भौतिकवादी था। मार्क्स ने भौतिक दुनिया को वास्तविकता का आधार माना और विचारों को भौतिक स्थितियों का प्रतिबिंब।
परिवर्तन का कारण: हीगल के अनुसार, परिवर्तन विचारों और आदर्शों से प्रेरित होता है, जबकि मार्क्स का मानना था कि परिवर्तन भौतिक स्थितियों और आर्थिक आधार से प्रेरित होता है।
इतिहास की प्रकृति: हीगल इतिहास को एक तार्किक प्रक्रिया के रूप में देखते थे जिसमें विचार एक निश्चित दिशा में विकसित होते हैं। मार्क्स ने इतिहास को एक संघर्ष के रूप में देखा जिसमें विभिन्न वर्गों के हित परस्पर टकराते हैं।
प्रश्न-6.मैक्स वेबर के अनुसार कौनसी शक्तियों ने पूँजीवाद को उदित किया ? यह धर्म से किस प्रकार सम्बन्धित है ?
उत्तर:- मैक्स वेबर और पूंजीवाद का उदय: धर्म का योगदान
मैक्स वेबर, एक जर्मन समाजशास्त्री थे, जिन्होंने पूंजीवाद के उदय में धर्म की भूमिका पर गहराई से अध्ययन किया था। वेबर के अनुसार, पूंजीवाद केवल आर्थिक शक्तियों का परिणाम नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान था।
वेबर के अनुसार पूंजीवाद के उदय में महत्वपूर्ण शक्तियां:
- पूर्व-निर्धारितता और कर्म: वेबर ने तर्क दिया कि प्रोटेस्टेंट धर्म, विशेषकर कैल्विनवाद, ने पूंजीवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कैल्विनवादी विश्वास करते थे कि व्यक्ति का स्वर्ग में जाना पहले से ही निर्धारित होता है और व्यक्ति इसके लिए कुछ नहीं कर सकता। हालांकि, वे यह भी मानते थे कि कड़ी मेहनत, सफलता और धन संचय ईश्वर की कृपा का संकेत हो सकता है। इस विश्वास ने लोगों को कड़ी मेहनत करने और धन संचय करने के लिए प्रेरित किया, जो पूंजीवाद के लिए आवश्यक तत्व थे।
- धर्मनिरपेक्षता: वेबर के अनुसार, प्रोटेस्टेंट धर्म ने धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया। कैल्विनवादियों ने इस दुनिया को एक ऐसी जगह के रूप में देखा जहां लोगों को ईश्वर की सेवा करनी चाहिए। इसने लोगों को व्यापार और उद्योग में लगने के लिए प्रेरित किया।
- व्यक्तिवाद: प्रोटेस्टेंट धर्म ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया। कैल्विनवादियों ने व्यक्तिगत जिम्मेदारी और स्वतंत्रता पर जोर दिया। इसने लोगों को अपनी किस्मत का स्वयं निर्माण करने के लिए प्रेरित किया।
धर्म और पूंजीवाद का संबंध
वेबर के अनुसार, धर्म और पूंजीवाद का संबंध निम्नलिखित तरीकों से जुड़ा हुआ है:
- कर्म सिद्धांत: कर्म सिद्धांत ने लोगों को कड़ी मेहनत करने और धन संचय करने के लिए प्रेरित किया।
- धर्मनिरपेक्षता: धर्मनिरपेक्षता ने लोगों को व्यापार और उद्योग में लगने के लिए प्रेरित किया।
- व्यक्तिवाद: व्यक्तिवाद ने लोगों को अपनी किस्मत का स्वयं निर्माण करने के लिए प्रेरित किया।
- सांस्कृतिक मूल्य: धर्म ने ऐसे सांस्कृतिक मूल्य प्रदान किए जो पूंजीवाद के लिए अनुकूल थे, जैसे कि कड़ी मेहनत, बचत, और निवेश।
वेबर के विचारों का महत्व:
वेबर के विचारों ने पूंजीवाद के उदय को समझने में एक नया आयाम जोड़ा। उन्होंने दिखाया कि आर्थिक कारकों के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कारकों का भी पूंजीवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
आलोचना:
वेबर के विचारों की कई आलोचनाएं भी हुई हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि वेबर ने धर्म की भूमिका को अतिरंजित कर दिया है और अन्य कारकों को कम आंका है। अन्य विद्वानों का मानना है कि वेबर का विश्लेषण केवल पश्चिमी यूरोप के लिए लागू होता है और अन्य संस्कृतियों में पूंजीवाद का उदय अलग-अलग कारणों से हुआ होगा।
प्रश्न-7. दुर्खीम के श्रमविभाजन के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए?
उत्तर:-
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